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शिष्य का कर्त्तव्य है गुरु के पवित्र मुख से जो आज्ञाएँ निकलें उनका पालन करें

 





गुरु के हृदय से शिष्य का ह्रदय एक तार..

शिष्य का कर्त्तव्य है गुरु के पवित्र मुख से जो आज्ञाएँ निकलें उनका पालन करें I गुरु के निवास एवं आश्रम के आसपास के स्थान स्वच्छ एवं व्यवस्थित रखो I गुरु और शिष्य के बीच शाश्वत संबंध है I

कभी-कभी गुरु अपने शिष्य की कसौटी करें या उसे प्रलोभन में डालें तो शिष्य को गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा के द्वारा उसका सामना करना चाहिए I शिष्य को कोई भी चीज गुरु से छिपानी नहीं चाहिए उसे स्पष्ट वक्ता और प्रमाणिक बनना चाहिए I

राग द्वेष से मुक्त गुरु के चरण कमलों की धूलि बनना यह तो महान सौभाग्य है दुर्लभ अधिकार है I परमात्मा के साथ एकत्रित स्थापित किए हुए आचार्य के पवित्र चरणों की धूली तो शिष्य के लिए अलौकिक अलंकार है I

गुरु सेवा का एक भी दिन चूकना नहीं I किसी भी प्रकार की पंगु बहाने बनाना नहीं Iजो अपने को गुरु चरण की धूल मानता है ऐसा शिष्य धन्य है I जो शिष्य नम्र सादा आज्ञाकारी तथा गुरु के चरण कमलों के प्रति भक्ति भाव रखने वाला है उस पर गुरु कृपा करती है I

महात्मा बुद्ध एक आम के वृक्ष तले ऊंची अडोल शिला पर विराजित थे। भगवे चीवर की कांति उन पर छायी थी, सहज भाव से वे मधुर-मधुर मुस्कुरा रहे थे। उनके सामने अनुयायियों और भिक्षुओं का विशाल समूह बैठा था, सभी आंखों से सिर्फ एक साध्य थे उनके गुरुदेव महात्मा बुद्ध।

महात्मा बुद्ध जानते हैं कि जब गुरुदेव सामने हों तो साधकों के आंखों का तप देखने वाला होता है। एक टक पलक बिना पथराए वे गुरुदेव के दिव्य स्वरूप को समर्पित हो जाते हैं। परन्तु समर्पण-समर्पण में अंतर होता है।

यहां आए तो सभी साधक आंखों की साधना करने के लिए, लेकिन सबकी साधना अलग-अलग थी, सबके निहारने में भिन्न-भिन्न भाव था। एकाएक महात्मा बुद्ध ने समीप रखा एक पुष्प उठा लिया, श्वेत पुष्प था वह जिसकी लचीली टहनी तथागत के दाहिने अंगूठे व अंगुली के बीच झूलने लगी I

कभी बुद्ध फूल को इधर झुकाते तो कभी उधर कभी फिरकी की तरह घुमा देते। इन पुष्प धारक बुद्ध को देख संगत में अलग अलग भाव तरंग हिलोरे लेने लगे I किसी को बुद्ध रसिक प्रतीत प्रेमी लगे, किसी को मधुर व शीलवान व्यक्तित्व, किसी को श्वेत पुष्प जैसे धवल व पावन स्वरूप, किसी को धीर गम्भीर गुरु, किसी को क्रांतिकारी धर्म धुरन्धर, किसी को बौद्ध संघ के प्रमुख, किसी को तो अपने से भी अपने लगे,किसी को पिता, भाई या सखा जैसे और किसी को दिव्य देव पुरुष लगे।

संगत जो सामने बैठी है अपने अपने भावों से अपने गुरुदेव क निहार रही है I दृश्य तो एक था परन्तु दृष्टि भिन्न भिन्न थी इसलिए दर्शन भी भिन्न भिन्न हो रहे थे I वैसे तो बुद्ध नितांत शांत बैठे थे, एकदम मौन परन्तु बीच बीच मे मीठी मुस्कान बिखेर देते थे। नेत्रों से अनबोली बोली में बहुत कुछ कह डालते थे। उनके इन मौन प्रवचनों ने भी सब पर अलग अलग असर किया।

किसी किसी को शिक्षाप्रद सीख मिली, किसी को अपनी उलझाऊ स्थिति को सुलझाने का विवेक, किसी को समस्या का समाधान किसी को निर्णय, किसी को मधुर प्रेम पत्र और किसी किसी को कुछ नही।

ये वे लोग थे जिनके पास गुरु दर्शन करने वाली आंखे न थी न गुरु प्रवचन सुनने वाले कान थे । परन्तु इनमें से कोई एक था जिसके पास पूर्ण दृष्टि भी थी और पूर्ण श्रवण शक्ति भी जो अपने गुरु महात्मा बुद्ध को देखने नहीं उनके पूर्ण दर्शन करने आया था।

जिसने गुरु को किसी एक रूप में नही देखा था, उनका समग्रता का दर्शन हुआ था। गुरु में व्यक्तित्व नही ढूंढा था ब्रह्मत्व का साक्षात्कार किया था। वह समझ गया था कि गुरु कोइ दिव्य पुरुष नही है बल्कि दिव्यता ही साकार होकर उनके रूप में आई है। इसी तरह उन्होंने गुरु के मौन से कोइ शिक्षा उपदेश नही सुना था अनहद नाद सुना था, तत्वज्ञान सुना था, पूर्ण गुरु का यह पूर्ण शिष्य था महाकाश्यप।

बुद्ध का फूल सहित दर्शन कर महाकाश्यप सहसा खिल उठा पूर्ण तृप्ति भरी उसने मुस्कान भरी आनंद उसकी आँखों में झूम उठा घड़ी भर में आनंद उसकी आँखों में झूम उठा I घड़ी भर में जैसे सब पा गया, खड़ा हुआ और दंडवत प्रणाम करते हुए महात्मा बुद्ध के चरणों मे बिछ गयाI

उधर बुद्ध भी आनंद विभोर दिखाई दिए क्योंकि उन्हें वह शिष्य मिल गया था जिसे वे वह दे पाये थे जो देने आए थे। ऐसा क्या दे डाला था उन्होंने महाकाश्यप को बिना कुछ कहे बिना हाथ बढ़ाए ? ऐसा क्या पा लिया था महाकाश्यप ने बिना हाथ या झोली फैलाये ? पूरी सभा को यह जिज्ञासा हुई ।

इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए आखिरकार महात्मा बुद्ध सांसारिक बोली में बोले कि हे आत्मजनो! मेरे पास धर्म चक्षु है, निर्वाण मेरे अधिकार में है निरातत्व स्वरूप बोधिसत्व है,मोक्ष द्वार मेरी आज्ञा से खुलता व बन्द होता है।आज महाकाश्यप ने मेरे इस सार को जान लिया मेरी आज्ञाओ में चलकर मेरी तत्व का साक्षात्कार कर लिया I मुझ सर्वस्व को जानकर वह सर्वस्व का अधिकारी बन गया है स्वयं निर्वाण को प्राप्त हो गया है।

यह सुनना था कि सभा सदों में हलचल मच गई। हर कोई कुछ न कुछ पूछना चाहता था। आनंद ने सभी की जिज्ञासाओं को स्वर दिया भगवान महाकाश्यप की साधना इतनी जल्दी कैसे पूर्ण हो गयी,उसमे ऐसी क्या विशेषता थी ?

महात्मा बुद्ध ने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा- ध्यान से सुनो चार प्रकार के घोड़े होते हैं I एक जिद्दी या अड़ियल घोड़ा इस घोड़े को हम जितनी मर्ज़ी चाबुक मारे वह टस से मस नही होता हठ ठान के अड़ा रहता है आगे नही बढ़ पाता I

दूसरी प्रकार का घोड़ा मार से डरता है । उसे एक चाबुक मारो और वह दौड़ पड़ता है I तीसरे प्रकार के घोड़े के लिए एक जोरदार फटकार ही काफी है उसे डांट पड़ते ही बोध हो जाता है और वह अपनी गलती सुधार लेता है I

चौथे प्रकार का घोड़ा ऐसा है जिसके लिए चाबुक की मार नहीं चाबुक की परछाई ही बहुत है उसे फटकार मारने की जरूरत नहीं। वह फटकार की आहट से ही डर जाता है।

सभासदो! दरअसल महाकाश्यप चौथे प्रकार का घोड़ा है, वह मेरी आज्ञाओं के प्रति हमेशा सतर्क रहा I मेरे निर्देशों की हवा तक को सूंघ जाता था उसे ज्यादा कुछ कहना ही नही पड़ा वह तो मेरे इशारों की भाषा ही समझ जाया करता था।

उसने मेरे हृदय से अपना ह्रदय एक तार कर लिया था इतना कि मेरे हृदय में बात आती थी और उसके हृदय तक पहुँच जाती थीI ऐसा करते करते वो मुझ में लय हो गया और आज पूर्ण विलय हो गया।

इतना कह कर बुद्ध मौन हो गए ध्यानस्थित हो गए। परन्तु उधर सभासदों में घोर मौन मंथन चल पड़ा I सभी मनन कर रहे थे कि वे कौन से प्रकार के घोड़े हैं ? पहले, दूसरे या तीसरे सभी को समझ आ गया था कि चौथे प्रकार का घोड़ा ही श्रेष्ठतम है और वैसे ही उन्हें बनना पड़ेगा अगर लक्ष्य को पाना है।

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