" रसिकराज के होरी रसिया "
रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का प्रस्तुतीकरण रासलीला तथा रसिया गायन के माध्यम से किया जाता है। प्रसिद्ध त्योहार 'होली' ब्रज में बिना रसिया गीतों के अधूरा-सा लगता है। होली पर कई प्रसिद्ध रसिया गीतों की रचना हुई है।
भारत में बसंत ऋतु का बड़ा ही महत्त्व है। मानवीय प्रेम के प्रतीक बसंत पंचमी और होली आदि के प्रसिद्ध उत्सव इसी ऋतु में मनाये जाते हैं। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का संगीतमय वर्णन इस समय किये जाने की परम्परा रही है। इसी परंपरा का एक प्राचीन प्रतीक है- 'रसिया गायन'। रसिया मुख्य रूप से ब्रजभाषा में गाया जाता है। ब्रजभाषा हिन्दी के जन्म से पहले पांच सौ वर्षों तक उत्तर भारत की प्रमुखभाषा रही है। रसिया राधा और कृष्ण को नायक-नायिका के रूप में चित्रित करते हुए ईश्वरीय भक्ति-प्रेम का गायन है। एक अच्छे रसिया गीत में शृंगार और भक्ति रस का गजब का सम्मिश्रण होता है, जो प्रेम को ईश्वर तक ले जाता है। रसिया गायन सरल सहज शब्दों में प्रेम का सन्देश देता है।
रसिया ब्रज की धरोहर है, जिसमें नायक ब्रजराज कृष्ण और नायिका ब्रजेश्वरी राधाको लेकर हृदय के अंतरतम की भावना और उसके तार छेडे जाते हैं। ग्राम की चौपालों पर ब्रजवासी ग्रामीण अपने लोकवाद्य "बम" के साथ अपने ढप, ढोल और झांझ बजाते हुए रसिया गाते हैं।
प्राकृत रंगों की रंग वर्षा से केवल तन रंगीन होता है पर अपने स्व्सेव्य श्री ठाकुरजी के श्री चर्णारविंद में अनंता, अनन्यता, द्रढ़ता, विश्वास, आदर, संवेदना, भक्ति और सर्वस्व समर्पणरूपी रंगों से तो मन और आत्मा का कल्याण होता है, समग्र जीवन भक्ति रूपी रंग से आच्छादित हो जाता है । श्रीठाकुरजी के रंग से अधिक और दुसरो क्या रंग हो सके ?
जिसने इस दिव्य रंग को पा लिया मानो वह धन्य और पुष्टि के साश्वत रंगों से रंगीन हो गया।
इन खेल के दिनों की आप सबन को ह्रदयमय रंगसभर भावपूर्ण बधाई।
जय श्रीकृष्ण....
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