Random Posts

व्रज - फाल्गुन कृष्ण द्वादशी (एकादशी व्रत)- ताजबीबी की भावपूर्ण अंतिम धमार

banner

 व्रज - फाल्गुन कृष्ण द्वादशी (एकादशी व्रत)





ताजबीबी की भावपूर्ण अंतिम धमार

बहोरि डफ बाजन लागे, हेली।। ध्रुव.।। 

खेलत मोहन साँवरो,हो, केहिं मिस देंखन जाय।। 

सास ननद बैरिन भइ अब,  कीजे कोन उपाय।। १।। 

ओजत गागर ढारीये, यमुना जल के काज,।। 

यह मिस बाहिर निकसकें हम, जायें मिलें तजि लाज।।२।।

आओ बछरा मेलियें, बनकों देहिं विडार।। 

वे दे हें, हम ही पठे हम, रहेंगी घरी द्वे चार।। ३।। 

हा हा री हों जातहों मोपें, नाहिन परत रह्यो।। 

तू तो सोचत हीं रही तें, मान्यों न मेरो कह्यो।। ४।। 

राग रंग गहगड मच्यो, नंदराय दरबार।। 

गाय खेल हंस लिजिये, फाग बडो त्योहार।। ५।। 

तिनमें मोहन अति बने, नाचत सबे ग्वाल।। 

बाजे बहुविध बाजहि रंज, मुरज डफ ताल।। ६।। 

मुरली मुकुट बिराजही, कटिपट बाँधे पीत।। 


इस पंक्ति को गाते गाते अकबर बादशाह की बेगम ताजबीबी को अत्यंत विरह हुआ और अपना देह त्याग श्रीजी की लीला में प्रविष्ट हुई, उनके ये पद की अंतिम पंक्ति श्रीनाथजी ने पूर्ण की


नृत्यत आवत ताज के प्रभु गावत होरी गीत।।७।।

अबीर की चोली


विशेष - माघ और फाल्गुन मास में होली की धमार एवं विविध रसभरी गालियाँ भी गायी जाती हैं. विविध वाद्यों की ताल के साथ रंगों से भरे गोप-गोपियाँ झूमते हैं. 


कई बार गोपियाँ प्रभु को अपने झुण्ड में ले जाती हैं और सखी वेश पहनाकर नाच नचाती हैं और फगुआ लेकर ही छोडती हैं. 


इसी भाव से आज श्रीजी को नियम से अबीर की चोली धरायी जाती है. फाल्गुन मास में श्रीजी चोवा, गुलाल, चन्दन एवं अबीर की चोली धराकर सखीवेश में गोपियों को रिझाते हैं. 


राजभोग समय अष्टपदी गाई जाती है. अबीर की चोली पर कोई रंग (गुलाल आदि) नहीं लगाए जाते.



राजभोग दर्शन – कीर्तन – (राग : सारंग)


ग्वालिनी सोंधे भीनी अंगिया सोहे केसरभीनी सारी l

लहेंगा छापेदार छबीलो छीन लंक छबि न्यारी ll 1 ll

अधिक वार रिझवार खिलवार चलत भुज डारी l

अत्तर लगाए चतुर नारी तब गावत होरी की गारी ll 2 ll

बड़ी बड़ी वरूणी तरुणी करुणी रूप जोबन मतवारी l 

छबि फुलेल अलके झलके ललके लख छेल विहारी ll 3 ll

हावभाव के भवन केंधो भूखन की उपमा भारी l

वशीकरण केंधो जंत्रमंत्र मोहन मन की फंदवारी ll 4 ll

अंचल में न समात बड़ी अखिया चंचल अनियारी l

जानो गांसी गजवेल कामकी श्रुति बरसा न संवारी ll 5 ll

वेसरके मोतिन की लटकन मटकन की बलिहारी l

मानो मदनमोहन जुको मन अचवत अधर सुधारी ll 6 ll

बीरी मुख मुसकान दसन, चमकत चंचल चाकोरी l

कोंधि जात मानो घन में दामिनी छबिके पुंज छटारी ll 7 ll

श्यामबिंदु गोरी ढोडीमें उपमा चतुर विचारी l

जानो अरविंद चूम्यो न चले मचल्यो अलिको चिकुलारी ll 8 ll

पोति जोति दुलरी तिलरी तरकुली श्रवण खुटि लारी l

खयन बने कंचन विजायके करन चूरी गजरारी ll 9 ll

चंपकली चोकी गुंजा गजमोतिन की मालारी l

करे चतुर चितकी चोरी डोरीके जुगल झवारी ll 10 ll....अपूर्ण


साज - आज श्रीजी में आज सफ़ेद रंग की सादी पिछवाई धरायी जाती है जिसके ऊपर गुलाल, अबीर व चन्दन से खेल किया जाता है. गादी, तकिया एवं चरणचौकी पर सफ़ेद बिछावट की जाती है.


वस्त्र – आज श्रीजी को बिना किनारी का पतंगी (रानी) रंग का सूथन, घेरदार वागा एवं चोली धराये जाते हैं. चोली के ऊपर अबीर की सफ़ेद चोली धरायी जाती है. 

रुपहली ज़री की तुईलैस की किनारी से सुसज्जित केसरी कटि-पटका ऊर्ध्वभुजा की ओर धराया जाता है. गहरे हरे रंग के ठाड़े वस्त्र धराये जाते हैं. 

सभी वस्त्रों पर अबीर, गुलाल आदि को छांटकर कलात्मक रूप से खेल किया जाता है. केवल चोली पर रंगों से खेल नहीं किया जाता.

प्रभु के कपोल पर भी गुलाल, अबीर लगाये जाते हैं. 


श्रृंगार – आज श्रीजी को छोटा (कमर तक) हल्का श्रृंगार धराया जाता है. हरे मीना के सर्व आभरण धराये जाते हैं. 

श्रीमस्तक पर पतंगी रंग की बाहर की खिड़की की छज्जेदार पाग के ऊपर सिरपैंच, मच्छी घाट को दोहरा कतरा एवं बायीं ओर शीशफूल धराये जाते हैं. श्रीकर्ण में कर्णफूल धराये जाते हैं. 

श्रीकंठ में आज त्रवल नहीं धराये जाते, कंठी व पदक धराये जाते हैं.

सफ़ेद एवं पीले पुष्पों की कलात्मक थागवाली दो सुन्दर मालाजी धरायी जाती है.

 श्रीहस्त में पुष्पछड़ी, हरे मीना के वेणुजी एवं एक वेत्रजी धराये जाते हैं.

पट चीड़ का व गोटी फाल्गुन की आती है.



🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷


संध्या-आरती दर्शन उपरांत श्रीमस्तक व श्रीकंठ के आभरण बड़े किये जाते हैं परन्तु अबीर की चोली नहीं खोली जाती है. 

शयन समय श्रीमस्तक पर रुपहली लूम-तुर्रा धराये जाते हैं.

Post a Comment

0 Comments